समय की क़दर कहीं गुम है

यह बात बहुत दिनों से ज़हन में चल रही है।

आख़िर क्या वजह है की सब कुछ जान कर भी मैं आज अपने आप से अनजानों सा बर्ताव कर रहा हूँ? 
उन बातों से भाग रहा हूँ जिनपर मैं कभी पीछे नहीं हटा, जिन्हें मैंने अपने ज़हन में हर वक़्त रखा। आख़िर कौन है जिसने मुझे मेरे ही बनाए हुए रास्ते पर ना चलने के लिए कई तरह के विश्वास जैसे रास्ते दिखा कर मुझे वहीं पर एक ही जगह पर खड़े होने पर मजबूर कर दिया?

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मैं एक ऐसी स्थिति में जीने लगा हूँ की समझ में नहीं आता की किसे दोष दूँ और किसे ना दूँ। अपने ही काम को ना करपाने की वजह से कितने लोगों को दोषी क़रार करूँ? मैं ऐसा तो नहीं था पहले और ना कभी होना चाहता हूँ। शायद मन की एकाग्र (एक ही जगह पर) ना होने की वजह से मैं ऐसा बर्ताव तो नहीं करने लगा हूँ? कई बार लिखते लिखते अपने आप को मैं सही ढंग से देख पता हूँ समझ पता हूँ मगर फिर भी ऐसा क्या है जो मैं कुछ चाह कर भी नहीं कर पा रहा हूँ?

अपने आस पास जब भी लोगों को पढ़ाई, आगे बढ़ने की बातें करते एवं सुनते देखता हूँ तो थोड़ा निराश हो जाता हूँ। मुझे भी कुछ कर दिखाने की ललक है, जिज्ञासा है मगर वो क्यों नहीं बाहर निकल रही है? किस वक़्त का मैं इंतेज़ार करूँ जिसमें मैं अपने आप को देख पाउँ या समझ पाऊँ? वो कहते है कि आप ख़ुद ही अपनी रुकावट के कारण हो जिसे आपने अपने ऊपर हावी होने दिया है। मगर फिर से वहीं बात लिख कर अपने आप से पूछने लगता हूँ की वो कौनसी रुकावटें है जो मुझे आगे अपने मुक़ाम पर नहीं पहुँचने को मजबूर कर रही है? 

बहुत दुवंद में ज़िंदगी जीने को मजबूर हो चला हूँ मैं रास्ता तो देख पा रहा हूँ मगर उस पर चल नहीं रहा हूँ। शायद यह मानव ज़िंदगी का एक कड़वा सच होगा जिनसे मैं आज रूबरू हुआ हूँ अथवा अपने साथ होते हुए देख रहा हूँ? जिन वस्तुओं को जिन चीज़ों से मैं अपना वास्ता नहीं रखना चाहता आज वह ही मुझे एक मात्र चीज़/वस्तु हर दिन नज़र आती है।

हर दिन एक एक करके अपनी ही गति से चलता चला जा रहा है, और मैं उस गुज़रते हुए वक़्त का दर्शक मात्र बना बैठा हूँ। मैं हर घूमते हुए उस चक्र पर अपने उद्देश्य, अपने मुद्दे बदलने लगा हूँ। मैं आज जानकार भी अनजान सा बैठा हूँ, सोच रहा हूँ की अपने इस पल में यह काम, यह बात और इस तरह से होनी चाहिए। ज़िंदगी में कई दिशा होने की वजह से एक दिशा को चुनना बहुत मुश्किल सा हो चला है।

देखों, कहीं लिखते लिखते मैं फिर एक पल को ऐसे ही गुज़रने तो नहीं दे रहा हूँ? कहीं यह पल भी मुझे आने वाले पलों में अपनी पहचान तो याद नहीं करवाएगा? जैसे ही होश में आता हूँ तभी आसपास की गति को समझने की कोशिश करने लगता हूँ और फिर से अपने आपको बिना वजह सताने, सज़ा देने लग जाता हूँ। कुछ समय तो अपने को समझा लेता हूँ की यह समय की गति को रोकना तेरे हाथ में नहीं है मगर कोशिश करना तेरे हाथ में ज़रूर है और अपने साथ की बातचीत मैं ही फिर से खो जाता हूँ।

कई बार चीज़ों का अधिक या कम ज्ञान व समझ होने की वजह से अपनी समझ को आलोचनातक तरीक़े से देखने को लगता हूँ, की कहीं यह जो हो रहा है क्या वह सच में यही है या कुछ और? जैसा मैं समझ पा रहा हूँ क्या वो ऐसा है या नहीं? इन्हीं बातों को सोच कर सोचता हूँ की प्रकर्ति के अनुसार शायद यह भी एक ऐसा समय है और इसे समझना चाहिए अपने इसी बहाव में चीज़ों को बहने देना चाहिए,

यह भटकाव का बहाव है, शायद कहीं तो यह जाकर रुकेंगी।



राहुल विमल

Comments

  1. बात बिलकुल सच कही आपने

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