आपका मत प्रचार तय करता है, आप नहीं।

पिछले साल अगस्त के दौरान यू॰पी॰ में।  
बात कुछ हज़म होने लायक नहीं है। बसपा का चुनाव प्रचार ज़ोरों शोरों से है और विरोधी पार्टियाँ शांति स्थापित किए हुए है?

पिछले महीने बसपा की रैलियों में जिस तरह से लोगों का सैलाब देखा गया वह काफ़ी चौकने वाला रहा। बहुत सी विरोधी पार्टियों ने उस पर बात करना इसीलिए मूनासिब नहीं समझा क्योंकि उनके पास इस पर प्रहार करने के लिए कुछ नहीं था। मैं भी इस सोच के साथ बहुत दिनों से बैठा हुआ था कि, पहली बार बसपा के अलवा ओर किसी भी पार्टी के एक दिवसीय रैली में लोग क्यों नहीं पहुँच रहे है? क्या लोगों का भरोसा बसपा छोड़ बाक़ी पार्टियों से उठ गया है? या यह कहें कि लोग अब अपना मत समझने लगे है और उसी दिशा में अपने निर्णय लेने लगें है? यह कहना थोड़ा मुश्किल है, क्योंकि आपका मत आप ख़ुद नहीं आपके TV, रेडीओ पर दिखाई व सुनाई जाने वाला प्रचार तय करता है। 

इन सब बातों का आज यहाँ पर लिखने का तात्पर्य आज की तस्वीर जो फ़ेस्बुक पर ख़ूब घूम रही है (या यू कहूँ की घुमाई जा रही है) 

लोगों का कहना है कि बसपा कि लहर की चलते भक्त (किसी भी दल, समूह के कट्टर समर्थक जो तर्क वितरक करना उचित नहीं समझते) लोग भी भटक गए है, ग़लतियाँ करने लगें हैं। यहाँ तक कि लोगों का कहना है कि यह पेंटर भी बसपाई हो चले है बसपा की हवा के चलते। मगर हक़ीक़त कुछ और ही लग रही है। जहाँ तक की सब जानते है, भाजपा प्रचार का तरीक़ा बहुत अलग रहा है, कारण उनका कैडर। और भी उस प्रचार का एक तरीक़ा है। 

सन 2009 की बात है दिल्ली विश्वविध्यालय में चुनाव प्रचार के दौरान कुछ प्रत्याशी खड़े हुए थे। नए नए छात्रों को नहीं पता होता की कौन सा प्रत्याशी सही और ग़लत है मगर चुनाव के दौरान वो वोट डालते है। कारण, प्रत्याशी द्वारा क्लास- क्लास, वन टू वन प्रचार करके, आप लोगों के दिमाग़ में घुस जाते है और वो ठीक उसी तरह से होता है कि जैसे TV पे आपके ख़रीदने की शमता का तय किया जाना।

हिट्लर  का प्रचारक Joseph Goebbels का मानना था की 100 बार झूट बोलने या दिखाने से वह अपने आप सच हो जाता है।


राहुल विमल

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